शांतिनगर के हमारे मुहल्ले में सेवानिवृत्त बुजुर्गों की एक जमात है. रोज शाम शौपिंग काम्प्लेक्स के कोने में बनी दवाई की दुकान के सामने सब इकट्ठे होते हैं. कुछ दूसरे मोहल्ले से भी ऐसे ही लोग, अनुकूल वातावरण देख कर शामिल हो जाते हैं. जगह की कमी के कारण बैठक दो पारियों में होती है. एक का नाम विधान सभा और दूसरे का नाम लोक सभा रख दिया गया है. तीसरा समूह एक समाज विशेष का भी है जो चलायमान रहता है. यदा कदा इसमे से कुछ छिटक कर हमारे विधान सभा या लोकसभा के दर्शक दीर्घा में आ बैठते हैं. अब आप सोचेंगे की इस नामकरण के पीछे भी कोई सोच होगी. जी हाँ बिल्कुल है. विधान सभा में चर्चा का विषय अधिकतर प्रादेशिक और स्थानीय होता है जबकि लोकसभा का चिंतन राष्ट्रीय हुआ करता है. विधान सभा की बैठक ८.०० बजे या कुछ पूर्व ही समाप्त हो जाती है. लोकसभा का सत्र ९.०० रात्रि तक निश्तिक रूप से चलता है. परन्तु ९.०० बजते ही कुछ एक साथ उठ खड़े होते हैं तो कुछ ऐंठ कर कुर्सी या बेंच पर बने रहते हैं मानो उन्हें बीबी की परवाह न हो. वस्तुतः यह दिखावे के लिए होता है.
कुछ ऐसे भी लोग हैं जो दोनों सभाओं में बराबर की रूचि रखते हैं. करें भी क्या, बीबियाँ भगा जो देती हैं. भगाए जाने के पीछे भी कई कारण बताये गए. कुछ के यहाँ शामको सहेलियों का आनाजाना लगा रहता है. पत्नियाँ नहीं चाहतीं की उनके पति की सहज दृष्टि भी सहेलियों पर पड़े. कुछ पत्नियाँ ब्यूटी पार्लर घर पर ही चलाती हैं. सज संवर कर जब कन्यायें कमरे से निकलती हैं तो बैठक में बुजुर्गों का पाया जाना बाधक बन जाता है. फ़िर कहेंगी अंकलजी मैं कैसी लग रही हूँ? यह सब पत्नी को रास नहीं आता. पर पतियों को दी गई यह छूट असीमित नहीं है. रात ९.०० बजे के बाद घर आने पर हमारे कई मित्र प्रताडित भी होते हैं. ऐसा लगता है मानो लोग श्वान योनि में प्रदार्पण कर चुके हों. उनकी जरुरत हो तो घर पर ही रहो नहीं तो बाहर जाओ. ऐ ले आओ वो ले आओ. एक मित्र का पट्टा निश्चित समय पर खोल दिया जाता है. फिर वह अपने बुढापे का ख्याल किए बगैर मंडली की ओर पूरी रफ्तार से निकल पड़ता है. बेचारा करे भी क्या अन्यथा मंडली के द्वारा भी प्रताडित होना पड़ेगा.
विधान सभा में जैसा, पूर्व में ही कहा जा चुका है, चर्चा का विषय प्रादेशिक एवं स्थानीय होता है. बिजली, पानी, सड़क, पर्यावरण, चोरी चमारी, लूट खसोट और महंगाई. एक कालोनी की बिजली की समस्या पर चर्चा वर्षों से चल रही है. कोलोनायिसेर, बिजली बोर्ड एवं स्थानीय नेताओं को कोसते कोसते अभी अभी उस कालोनी में बिजली ने अपनी दस्तक दी है. अब पानी की समस्या ने विकराल रूप धारण कर लिया है. समाधान कहीं दूर दूर तक नही दीखता. एक के बाद एक बोरवेल सूखते जा रहे हैं. दूसरी ओर हमारी लोकसभा इन सब मामलों में रूचि नही रखती. राष्ट्रीय समस्याएं क्या कम हैं? आतंकवाद, तुष्टिकरण की राजनीती, परमाणु संधि, अमेरिका से रिश्ता, संभावित लोकसभा चुनाव, गठजोड़, ऐ सब भी तो हैं.
ऐसी गंभीर समस्याओं पर चर्चा के बीच कुछ मित्रों में अपनी व्यक्तिगत (घरेलु) समस्याओं को उजागर करने की प्रवृत्ति भी देखी गई है. आम तौर पर वह ज्यादा सशक्त प्रतीत होती है. कभी कभी समस्या को बयां ख़ुद बा ख़ुद सदस्य ही करता है या फिर उसे प्रेरित किया जाता है. वैसे तो हर व्यक्ति की अपनी समस्या होती है परन्तु दूसरे की सुनकर मन हल्का करने की या मजे लेने की जुगाड़ भी होती है. हाँ तो आज क्या हुआ ? - बस पूछने की जरुरत, फ़िर सुनते रहिये उनकी कहानी. एक मित्र तो आते ही कहते हैं "हमारी सुनो", जैसे सबकी सुननेकी जन्मजात विविशता हो. लोक सभा गई भाढ में.
हमारे इस क्षेत्र की आबादी काफी बढ़ गई है. नए नए अख़बार निकल गए हैं और मुफ्त में बाँट भी रहे हैं. पूर्व से स्थापित अख़बारों में अपने पाठकों को बनाये रखने की प्रतिस्पर्धा भी दिख रही है. उन्हों ने राजधानी के इस क्षेत्र विशेष के लिए अलग परिशिष्ट भी प्रकाशित करना प्रारम्भ कर दिया. कुछ ने तो अपना एक छोटा कार्यालय ही खोल दिया. अब इनके पत्रकारों को छापने के लिए मसाला भी तो चाहिये. उनकी नज़र हम मसाल्चियो पर पड़ी. प्रस्ताव आया की हम लोगों की फोटो खींची जायेगी. दो एक बातें होंगी और अख़बार में छपेगी. तब जाकर कर्तव्यबोध का ख्याल आया. हरेक ने अपने साक्षात्कार में अपने आप को किसी न किसी तरह समाज सेवा से जुटा हुआ जताया. अख़बार में फोटो सहित ख़बर भी छाप दी गई. सामाजिक उत्तरदायित्व का निर्वहन न सही, प्रचारित करने का अवसर तो मिला.
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